हर कामयाबी के पीछे होती है कठिन संघर्ष और वर्षों की मेहनत।
 क्या आपने एडिडास और प्यूमा का नाम सुना है?
निसंदेह आपने जरूर सुना होगा क्योंकि यह कंपनियां स्पोर्ट्स शूज (यानी खेल में प्रयोग किए जाने वाले जूते) को बनाने के लिए जानी जाती हैं इनके जूते काफी बढ़िया मजबूत और हलके होते हैं।
आप शायद इस कंपनी के जूते पहनते भी हो फिर भी इन कंपनी के कठिन संघर्ष के बारे में शायद आप ना जानते हो। एडीडास और प्यूमा का आपस में कोई संबंध होगा
यह भी आश्चर्यजनक लगता है,किंतु सत्य है।
 इन कंपनी की शुरुआत जिन कठिन परिस्थितियों में हुई और जिस संघर्ष का सामना इनको करना पड़ा वह अपने आप में बड़ी रोचक और प्रेरणादाई कहानी है।

चलिए शुरू करते हैं एडीडास और प्यूमा का यह
जीरो से हीरो बनने तक का प्रेरणादाई सफर....

एडीडास कंपनी के संस्थापक एडोल्फ डेज़लर का जन्म जर्मनी की एक छोटे से शहर फ्रैंकोनियन में 3 नवंबर 1900 को हुआ था। दो भाई एक बहन के बाद यह अपने माता पिता की चौथी संतान थे।एडोल्फ के पिता क्रिस्टोफ ने पूर्वजों का कपड़ा बनाने का जो व्यापार था उसे छोड़ दिया और वह एक कारखाने में काम करने लगे।
 वहां वह बहुत अच्छे किस्म का जूता  बनाना सीख गए। इनकी मां पॉलिन कपड़े धोने का काम करती थी।एडोल्फ का मन ज्यादा खेलकूद में लगता था और वह अपना खाली समय खेलकूद में ही बिताते थे।अपने खेल के सामान उन्हें अपने हाथों से बनाना पसंद था।
एडोल्फ अपने अपने पिता से जो की बढ़िया जूते बनाते थे उनसे सिलाई  सीखी और वह जूतों की सिलाई का काम करने लगे। खेलकूद में इनका मन ज्यादा लगता था इसलिए इन बातों को अच्छी तरह से समझते थे कि एक खिलाड़ी को किस तरह के जूते चाहिए होते है।
वह जूतों को हमेशा और अच्छा और बेहतर बनाने का प्रयास करते थे।
कुछ देशों में आर्मी ज्वाइन करना जरूरी है।जर्मनी में भी ऐसा नियम है। 1918 में एडोल्फ ने आर्मी ज्वाइन कर ली।वापस लौटने पर उन्होंने देखा कि घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है और उन्होंने पुनः जूते बनाने का काम शुरू कर दिया।
 प्रथम विश्व युद्ध के बाद सब कुछ बर्बाद हो चुका था लेकिन एडोल्फ ने हिम्मत नहीं हारी। युद्ध के मलबे से निकले सामान को उन्होंने अपनी रचनात्मकता से जूते बनाने में प्रयोग किया और इस तरह से वह इस मंदी में अपने घर का खर्च चला पाने में सक्षम रहे।
इनका मकसद हमेशा बेहतर जूते बनाने का था।
 इनके भाई रुडोल्फ भी कुछ दिनों बाद इनके साथ जूते बनाने का काम करने लगे  और दोनों भाइयों ने मिलकर एक कंपनी डेजलर ब्रदर्स स्पोर्ट शू फैक्टरी रजिस्टर करवा ली।
 मेहनत कभी व्यर्थ नहीं जाती।
एडोल्फ का बढ़िया और बेहतर जूते बनाने के ढंग ने उन्हें कामयाब बनाया उनकी मेहनत रंग ला रही थी।
सन 1928   एम्स्टर्डम ओलंपिक के लिए एडोल्फ ने अपने पहले ट्रैक सूज बनाये थे जिससे दुनिया को इनकी क्वालिटी का पता चला
 फिर 1932 ने लॉस एंजेलिस में ऑथर जोनेस नाम के व्यक्ति ने एडिडास के जूते पहनकर 100 मीटर की दौड़ में तीसरा स्थान प्राप्त किया।
 जर्मन ओलंपिक ट्रैक एंड फील्ड टीम के कोच जोसेफ वेल्टर को एडोल्फ के जूते बहुत पसंद आये।
वह इन जूतों का डिजाइन देखकर इतना खुश हुए कि यह जूते उन्होंने 1936 के बर्लिन ओलंपिक में भाग लेने वाले जेसी ओवेस को यह जूते पहनाए। जेसी ओवैस ने कुल 4 गोल्ड मेडल जीते।

इस तरह इन जूतों को नई पहचान मिली ।एक जूते की छोटी कंपनी  अब  एक अंतरराष्ट्रीय  ब्रांड  बन चुकी थी ।
सच ही है जितना कठिन संघर्ष होता है सफलता भी उतनी ही बड़ी होती है।

ब्रांड तो बड़ा हो गया, लेकिन..
चुनौतियां कम नहीं होंगी,चुनौतियां तो आएंगी ,उनका डटकर सामना करना होगा।
इनके भाई रूडोल्फ जिन्होंने साथ में मिलकर यह जूते बनाने का काम शुरू किया था और जो इनकी कंपनी में इनके पार्टनर भी थे कुछ मतभेदों के चलते  अलग हो गए।
सारी कठिनाइयों के बावजूद एडोल्फ ने अपना ध्यान पूरी तरीके से अपने  जूतों के व्यापार को बढ़ाने और उन्हें और बेहतर करने में लगाया।
दोनों भाइयों के बीच की दूरियां बढ़ती ही गई। इसी बीच द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एडोल्फ की हालत पहले जैसी हो गई थी।कच्चे माल की अत्यधिक कमी की वजह से उन्होंने फिर मलबों से सामान निकाल कर अपना उत्पादन जारी रखा उन्होंने अपनी सबसे बड़ी कमजोरी को अपनी ताकत बना लिया।मलबों से उपयोगी सामान बनाना यह सोचना ही कितना कठिन है,उन्होंने इस मलबे का  प्रयोग अपने जूते बनाने के लिए किया और अपना उत्पादन जारी रखा।एडोल्फ ने कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य बनाए रखा और समस्याओं का सामना किया।आज एक ब्रांड के रूप में एडीडास हमारे सामने है।
चुनौतियां सबके जीवन में आती हैं हर सफल व्यक्ति ऐसे ही चुनौतियों सामना करके सफल होता है।
सन 1948 में दोनों भाइयों में मतभेद बहुत ज्यादा हो गया और इन लोगों ने अपने अलग-अलग कंपनियां बना ली एडोल्फ ने अपनी कंपनी का नाम एडीडास रखा और इनके भाई रूडोल्फ ने अपनी कंपनी का नाम रूडा रखा जिसे 1958 में प्यूमा कर दिया गया।
 जूते सिलने से दुनिया का दूसरे नंबर का ब्रांड बनने तक यह कहानी काफी कुछ सिखाती है.....

1.कोई भी काम छोटा नहीं होता उसे बड़ा बनाने के लिए जरूरत है तो बस बडे़ सपनों की।

2.परिस्थिति चाहे कितनी भी खराब क्यों ना हो घर के साथ सामना करें सफलता अवश्य मिलेगी।

3.अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बनाना
 बेकार मलबा से उन्होंने जूते बनाने का सामान तैयार किया।

4.हमेशा अपने आप में सुधार करते रहना और खुद को बेहतर और बेहतर बनाते रहना।

5.किसी एक काम में एक्सपर्ट होना महारत हासिल करना।

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